धर्मनीति और अनाचार से सृजित धन


द्वितीय- जिस धन से भोजन बनाया जा रहा है वह धर्मनीति और अनाचार से सृजित धन से बनाया गया है तो वह भोजन शान्तचित मन में भी विकृति पैदा कर देता है।


तृतीय- भोजन ग्रहण करने का समय निश्चित होना चाहिए। क्योंकि शरीरिक अवयवों की क्रियाशीलता हर समय रहती है मध्य रात्रि के समय पाचन तन्त्र सर्वाधिक सक्रिय होता है। सुबह को चाय आदि पेय से चलना नहीं चाहिए। दोपहर को व शाम सूर्यास्त के बाद भोजन गृहण सोने तीन घण्टे पहले कर लेना चाहिए। चकर संहिता में कहा गया है-


हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रिय।


चतुर्थ- भोजन बनाने और गृहण करने वाले का मन भी पवित्र होभोजन परोसने में भेदभाव नहीं करना चाहिए। पात्रों व भोजन सामग्री को चूहे, कीटो, मक्खी, मच्छरों आदि से बचाकर रखना चाहिए। भोजन अशुद्धता से अनेक घटनाएँ हो जाती है। सामूहिक भोजन में पंगत में एक साथ ही भोजन करके उठना चाहिए।


भारतीय संस्कृति में भोजन अन्नदान का भी विशेष महत्व वर्णित है। ऋग्वेद 10/117/3 में कहा गया है-


स इद्धोजो भवति ददात्यन्नकामाय चरते कशाय। अरभस्मै भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम्।।


अन्न की कामना करने वाले निर्धन याचक को जो अन्न देता है, वही वास्तव में भोजन करता है। ऐसे व्यक्ति के पास पर्याप्त अन्न रहता है और समय पड़ने पर बुलाने उसकी सहायता के लिए तत्पर अनेक मित्र उपस्थित हो जाते हैं।


कठोपनिषद् 1/1/8 में कहा गया है-


काशा प्रतीक्षे संगत सूनृतां च इढटापूर्ते पुत्रपशुश्चे सर्वान्। एतद् वृउक्त पुरुषस्याल्पयेघसो। यस्यानश्रन् वसति ब्राह्मणो गृहे।।


जिसके गृह में ब्राह्मण और अतिथि अभ्यागत भोजन किये बिना रहता है उस मानव के अनेक प्रकार आशा कमाना प्रतीक्षा उनके द्वारा पूर्व होने वाले सभी प्रकार के सुख, मृदुवाणी का फल, यज्ञ, दान, कुच तडाग वारिश आदि का निर्माण का प्रतिसूफल पुत्र व पशु इन सभी वह खो देता है।


भोजन बनाने वाले के वस्त्रों के सन्दर्भ में भी कहा गया है कि पुरुष पूजा और भोजन के समय धोती कच्छ (लांग) लगाकर ही बनाना चाहिए, लुंगी की तरह न बाँधकर जैसे कुछ लोग भजन करने वस्त्र व आसन अलग रखते हैं, वैसे ही भोजन का आसन व वस्त्र अलग रखने चाहिए। 'मुक्त कच्छो महाधमः।


अकच्छस्थ द्विकच्छस्य आशिखो। शिखवर्जितः। पाककर्ता हत्यग्राही षडैते ब्राह्मणाधमाः (स्मृतिवचन)


आपस्तम्ब ऋषि ने अपनी स्मृति 6/3 में नीले रंग के परिधानों का भी निषेध कई कार्यो के लिये किया है- उसमें भोजन का महायज्ञ भी शामिल किया है-


स्नानं दानं जपो होमः स्वाधामः पितृतर्पणम। पञ्चमज्ञा वृथा तस्य नीलीवस्त्रस्य धारणत्।।


भोजन के बाद यदि भोजन कण दोनों में फंसे हों तो उन्हें निकालने के लिये पानी या नीम की सींक का प्रयोग ही करना चाहिए, सोलह बार कुल्ला करना चाहिए। मुँह में पानी रखकर आँखे धोनी चाहिए तथा लघु शंका भी तुरन्त ही करनी चाहिए।


भोजनोपरान्त, दौड़ना, व्यायाम, योग, तैराकी स्नान, अश्वारोहण, मैथुन और तत्काल ही बैठकर काम नहीं करना चाहिए। अपितु सौ दो सौ कदम चलना भी चाहिए, फिर वज्रासन से बैठना चाहिए। फिर सीधे लेटकर आठ श्वास लेनी चाहिए, दाहिनी करवट से 16 बार श्वास भरना चाहिए, 32 बार बाँयी करवट से लेट कर श्वास लेना लाभ प्रद होता है। पाचन तन्त्र ठीक रहता है।


आयुर्वेद में तीन प्रकार के भोजनों का उल्लेख हैं- 1. शमन करने वाला भोजन 2. कुपित करने वाला भोजन 3. सन्तुलन रखने वाला भोजन।


भोजन के बाद सौफ, ताम्बूल, इलायची या गुड़ चबाने व खाने से पाचन क्रिया ठीक रहती है।


मनुस्मृति-2/55 में कहा गया है-


पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्जञ्च मच्छति।


अपूजितं तु तद मुक्तमुभयं नाशयेदिदम्।।


प्राप्त भोजन को भगवान को अर्पण करें, उसकी निन्दा न करें, अन्न का आदर करें, अनादरित अन्न से सामर्थ्य और वीर्य दोनों नष्ट हो जाते हैं।


सती मदालसा ने भोजन के सन्दर्भ में कहा है- पूर्व या उत्तर की और मुँह करके भोजन के लिए आसन पर बैठे, जूठे मुँह वार्तालाप न करें, न ही स्वाध्याय करें। जूठे हाथ से गौ, ब्राह्मण, अग्नि, अपने मस्तक को न छुएँ, न ही सूर्य, चन्द्रमा, तारों की और देखे।


भोजन के सन्दर्भ में समर्थ गुरु रामदास जी के दासबोध 11/3/21 तथा 12/10/1 में कहा है-


चंकाग्र असावें मन। तरी मग जेबितां भोजन। गोड वाटे।


भरपेट भोजन के बाद बाकी अन्न को बाँट देना चाहिए, व्यर्थ नहीं फेकना चाहिए।


आपण येथेष्ट जेवणे। उरले ते अन्न वाटणे।। परंतु कया दवडणे। हा धर्म नव्हे।


ऋग्वेद 10/117/1-2 में कहा गया है-


है। सृष्टि कर्ता ने प्राणियों को क्षुधा देकर लगभग मार ही डाला है जो अन्न दानकर जठराग्नि को शान्त करता है वही दाता है। जो जरूरतमंद को भोजन न देकर स्वयं भोजन करता है, एक दिन वह भी मरता है, देने वाले को कभी घाटा नहीं होता, उसे ईश्वर देता है।


भोजन या अन्न की इच्छा के साथ कोई द्वार पर आवे और उसकी यह इच्छा पूरी न की जाय और स्वयं भोजन किया जावे तब उसे कठोर मन को कभी सुख नहीं प्राप्त होता है।