भोजन बनाना एक कला है तथा उसे गृहण करना एक विज्ञान है। भोजन में तुलसी पत्र को सम्मिलित करने में अन्न की न्यूनतम विषाक्तता समाप्त हो जाती है-तुलसीदल सम्पर्कादन्नं भवति निर्विषम्।
भोजन करने के पूर्व पैर, हाथ, दाँत और मुँह को धोकर बैठना चाहिए। यदि घर पर किसी को भोजन करने हेतु निमन्त्रित किया गया है या कोई अथिति घर पर है तो उन्हें भोजन करने के बाद ही गृहास्वामी व गृहणी को भोजन करना चाहिए।
गृहस्वामी के लिए तो यह भी कहा गया है कि पहले घर पर आई हुई विवाहित पुत्री या गर्भिणी, बृद्धों का या परिवार को सदस्य रूठ गया हो तथा बालकों का सब को भोजन करने बाद ही स्वयं भोजन करना चाहिए। इनकी की अपेक्षा कर भोजन गृहण करना पाप करना है।
त्रिकाल सन्ध्योपसना तथा मध्यान्न और सायंकाल में दो बार भोजन किया जाना आवश्यक है।
भोजन पात्रों का भोजन के पूर्व जल से परिवृत्त करना चाहिए-
भोजना दौ सदा विप्रैर्विधेय परिषेचनम्। तेन कीटादयः सर्वे दूरं यान्ति न संशयः।।
भोजन का थाल सम्मुखन के बाद तीन ग्रास जो नमक डाले हुए पदार्थो के न हो थाली से निकाल कर भूमि पर थाली के दाहिनी ओर रखना चाहिए तथा ये मन्त्र उच्चरित किया जाये-
ॐ भूपतये स्वाहा, ॐ भुवनपतये स्वाहा, ॐ भूतानां पतये स्वाहा तथा जलपात्र से जल लेकर इन्हीं मन्त्रों से जल भी छोड़ना चाहिए। उसके उपरान्त भोजन थाल में जो भी मिष्ठान हो उसके पाँच छोटे-छोटे ग्रास इन मन्त्रों के साथ लेने चाहिए- ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा। ये उदर में निवास करने वाली अग्नि में परमसत्ता के प्रति आहुतियाँ हैं। यह भी आवश्यक है कि भोजन के पूर्व ॐ अमृतोपस्तरणमक्षि स्वाहा।
भोजन चूल्हा, अंगीठी, मट्टी या जगरा पर बनाया जाना चाहिए। बने हुए भोजन में ऊपर से नमक मसाले आदि मिलाकर नहीं खाना चाहिए।
भोजन सुखासन से बैठकर करना चाहिए। एक ही थाली में कई लोग एक साथ भोजन न करे एक थाली में एक व्यक्ति को भोजन करना चाहिए। भोजन के समय उत्तेजित न हो उच्च स्वर से न बोले न हँसे, न शोक व रूदन करें निषिद्ध अन्न का भोजन का भोजन न करें। ध्यान देने की बात है डोंग सिस्टम (खडेसुरी भोज) में भीड की धक्का मुक्की में अन्य लोगों का स्पर्श होता है भोजन के समय किसी स्पर्श बर्व्य है
चीनी आदि पेय भी किसी के झूठे पात्रों में नहीं लेना चाहिए। आज के भोजों में क्रॉकरी कैसे साफ होती है सबको दिखते हए भी नहीं दिखती बड़े से बर्तन बर्तनों का ड्रबाकर निकाल दिया जाता है।
स्मृतिकारों ने जिस भोजन को त्याज्य बताया है वह है रजस्वला स्त्री का स्पर्श किया हुआ, चिड़ियों-पक्षियों का खाया हुआ कुत्ते-बिल्ली का स्पर्श किया पर खाया हुआ, गाय का ध्राण किया हुआ, लार, थूक, स्वदे, बाल पड़ा हुआ, तिरस्कार अपमान के साथ दिया हुआ। वेश्या, कलाल, कुरूधन, कसाई, और राजा का अन्न नहीं खाना चाहिए।
रोटी, दाल, दलिया, चावल आदि का भोजन कच्चा भोजन कहा जाता है यह सभी का ग्राह्य नहीं होता है इसे 'सकरा' भोजन भी कहा जाता है पक्का भोजन पकवाने पक्का भोजन भी विचार के साथ ही गृहण करने का आदेश है रोटी और बेटी का सम्बन्ध सजातीय पहले है, स्वर्ण भी बाद में है। एक कहावत है बारह ब्राह्मण तेरह चौके यानि भोजन बनाने लिए अग्नि भी किसी ग्राह्य नहीं होती ब्राह्मण भी अनेक प्रकार के हैं, वे भी एक दूसरे का कच्चा भोजन (सकरा) नहीं ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार व्यवस्था क्षत्रियों और वैश्यों में भी थी। एक नैतिक आचरण था कि किसी के चौके में दूसरा व्यक्ति प्रवेश नहीं करता था। इसे मालवी भाषा में 'चौका अवडाना' बोलते हैं। ब्राह्मण के द्वारा भोजन बनाने पूर्व जितने स्थान से लीप-पोत कर या जल छिड़कर शुद्ध किया जाता है उतने स्थान पर कोई अन्य प्रवेश नहीं कर सकता, ब्राह्मण के चौके के बारे कहा जाता है 'ब्राह्मण का चौका बाबन बीघा में'। भोजन के विषय कुछ सूत्र अत्यधिक विचारणीय है।
भोजन के विषय कुछ सूत्र अत्यधिक विचारणीय है।
प्रथम- स्थान प्रत्येक क्षेत्र का प्रभाव हमारे तन मन पर होता है। वैसे भोजन बनाते खाते समय ऐसे स्थान पर चयन हो जो चारों और से घिरा हुआ हो। खुले में भोजन बनाते समय पंक्षियो मधुमक्खियों का ध्यान रखना चाहिए घूम से वे प्रभावति हैं। आम के पेड़ पर जब बौर आ रहा हो तो डाल के नीचे भोजन नहीं बनाना चाहिए। किसी भी फलते-फूलते वृक्ष के समीप भी भोजन नहीं बनाना चाहिए। मन्दिर व गौशाल का स्थान भोजन बनाने के लिए उपयुक्त होता है। श्मशान भूमि या किसी अपवित्र व गन्दे स्थान पर भी भोजन नहीं बनाना व करना चाहिए। पवित्र नदियों सरोवरों व तीर्थों में भोजन बनाना व ग्रहण करना श्रेष्ठ है। मक्खी, मच्छर बैक्टीरिया कीटाणुओं से दुषित स्थान भोजन के लिए वर्ण्य है, धूल, धूप का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। भोजन बनाने वाले के लिए चौके के अधिकृत व्यक्ति ही प्रवेश का अधिकारी होता है। अनधिकृत का छूना भी वर्ण्य होता है।