बाजारों में बनाया गया भोजन केवल धन अर्जन के उद्देश्य से बनाया जाता है।

बाजारों में बनाया गया भोजन केवल धन अर्जन के उद्देश्य से बनाया जाता है। इसलिए यह पौष्टिक नहीं होता है। माता के हाथ का बनाया गया भोजन सबसे अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है क्योंकि माता पूर्ण स्वस्थ मनोयोग के साथ अपने परिवार बच्चों के लिए बनाती हैं।


भोजन करते समय उकडू नहीं बैठना चाहिए तथा लम्बे पाँव करके भी नहीं बैठना चाहिए तथा दक्षिणामुख बैठकर भी भोजन नहीं करना चाहिए। भोजन के पूर्व भगवान का भोग लगाकर उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए। भोजन खाते समय चप-चप नहीं करना चाहिए। मध्याह्न का भोजन 11 से 1.00 बजे के मध्य होता है इस में अधिकतर घरों दाल, रोटी, धनिया या पोटीना की चटनी हरी मिर्च, मूली, आदि का प्रयोग होता है चावल भी कभी-कभी बनाया जाता है। खिचड़ी का प्रयोग अल्पमात्रा में होता है दलिया और खिचड़ी को मरीजो का भोजन माना जाता है।


तीसरे प्रहर में शीत ऋतु को छोड़कर 'ठंडाई' का प्रयोग किया जाता है, यह स्वयं शिलबट्टे पीस कर तैयार की जाती है इसका चलन अब बहुत कम हो गया है चाय का चलन बड़ गया है।


एक समय था जब सूकाक्षेत्र बूंदी के लड्डू की दावत बहुत महत्वपूर्ण होती थी तब दावत में केवल भरपेट लड्डू ही खिलाये जाते थे और खाने वाले भी ऐसे थे कि एक पल्ला लड्डू खा लेते थे। सौ पचास लड्डू खाने वाले तो अभी हैं। महिलाओं में भी ऐसी थी जो पचास साठ लड्डू खालेती थी। आठ लड्डू से कम तो एक बार में परोसे ही नहीं जाते थे। दावत में अगर किसी ने खाने वाले ने लड्डू सिर्फ परोसने बात कह जो बराबर में बैठा व्यक्ति चिड़ जाता था कि आप कहीं दूसरी जगह बैठ जायें वरना मैं भूखा रह जाऊँगा।


भोजन के समय आसन और मौन का अपना अलग ही महत्व है भोजन भूमि पर रेशमी, कम्बल, ऊनी, काष्ठ तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन पर पालथी मार कर बैठकर ही करना चाहिए। काष्ठ आसनों में शमी, (शीशम) काश्मीरी शल्ल (शाल) कदम्भ, जामुन, आम, मौनक्षिरी एवं वरूण के आसन श्रेष्ठ रहते हैं। लकड़ी के आसनों में लोहे की कील नहीं होनी चाहिए।


भोजन के समय माँगने या मना करने का संकेत हाथ से ही करना चाहिए। भोजन कैसा है यह भी पूछना ठीक नहीं उसकी प्रशंसा पर निन्दा भी नहीं करनी चाहिए, सूकरक्षेत्र में भोजौ की प्रशंसा निन्दा प्रमुख विषय होता है।


भारत में जब हम कहीं भोजन करने बैठते हैं तो पहले जल हमारे समाने रखाजाता कहा जाता है? फिर कहा जाता है भोजन करो। फिर जल पहले क्यों? 'छान्दोग्य उपनिषद' के सप्तम आध्याय के दशम खण्ड में अन्न की अपेक्षा जल का महत्व अधिक है, यह बताया गया है अन्न जल से ही उत्पन्न होता है 'क्षुधा' से 'तृषा' ज्यादा तीक्षण होती है। भूख भोजन से शान्त होती है पर जल न हो तो भूख भी भाग जाती है। अन्न का कारण जल है, यदि जल न हो तो अन्न नहीं होगा, इसलिए अन्न से पहले जल हमारे समाने परोसा जाता है। आज के आधुनिक भोजनालय में पहले खाली बर्तन हमारे सामने आते हैं।


यन्दवेद उपनिषद के छठे आध्याय के छठे खण्ड के तीसरे भाग में बताया गया है कि पिये हुए जल का जो सूक्षम भाग होता है वह एकत्र होकर प्राण को पुष्ट करता है।


एक कहावत है- 'जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन' छन्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के पाँचवे और छठे खण्ड में इस स्पष्ट किया गया है, भोजन में लिया गया अन्न जठुरग्नि द्वारा तीन रूपों में परिवर्तित होता है- 'अन्नमशितं हे त्रेध विधीपते' स्थूल भाग मल हो जाता है, माध्यम भाग मांस होता है और उत्पन्न सूक्ष्म भाग मल हो जाता है, इसीलिए भारतीय ऋषियों ने भोजन की शुद्धता और सर्वग्रहिता पर बहुत गंभीरता से विचार किया सभी का अन्न ग्राहच नहीं है क्योंकि वह मन के निर्माझा का एक कारक है मन बुद्धि और कर्मो को प्रभावित करता है। इसलिए भोजन अन्न ग्रहिचता विचारणीय है।


भारत में भोजन स्वाद, रूचि पौष्टिकता सात्विकता सुपाच्यता आदि में विश्व के अन्य देशों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ है, यहाँ के व्यंजनों और मिष्ठानों की कोई तुलना नहीं है। आज एक चलन नवधनाढ्यों बहुत अधिक है, यदि लोग घर के भोजन को त्याग बाहर भोजनालयों में भोजन करना पसन्द करते हैं। वहाँ भी वह भोजन जो अपने देश का नहीं कर विदेशी होता है, नवधनाढ्य वहाँ अपने बच्चों को भारतीय भोजन के स्थान पर विदेशी भोजनों के प्रति आकर्षण पैदा करते हैं, जिनके माता-पिता ऐसा करते हैं, वे सन्तान भारत के प्रति कैसे समर्पित हो सकते है।


गीता 1/8-10 के अनुसार सरल, सारवात और हितग्राही आहार सात्विक हैं इससे आयु, बल, उत्साह आरोग्य सुख और प्रीति की वृद्धि होती है। अधिक कटु, अम्ल, लवण, उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष और रोग उत्पन्न होते हैं बासी रसहीन दुन्धियुक्त जूठा और स्पर्ण और दृष्टि से अपवित्र (उच्छि जुट) आहार तामसिक होते हैं जिनसे तन-मन में जड़ता अज्ञानता और पशुमान जाग्रत होते है।


भोजनान्न पवित्र शुद्ध होना चाहिए की और अन्य भोजन तत्व न हो। गृहणी या रसोइया का अन्तकरण और वाह्य दोनों रूस से शुद्ध हो। आहारशुद्धि से सत्वशुद्धि, सत्वशुद्धि से ध्रुवा स्मृति और स्कृतिशुद्धि से समस्त ग्रथियों का भोजन होता है


आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्तवशुद्धों ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्मे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।


मनुस्कृति में कहा- अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोद्धा देवो महेश्वरः-अन्न ब्रह्म है रत विष्णु है और आहार ग्रहण करने वाला महेश्वर है। वर्त्य लोगों का अन्न ही अकाल मृत्यु का कारण होता है।


भोजन के पात्र भी व्यक्ति के तन मन को प्रभावित करते हैं स्वर्ण जल पात्रों में अतिरिक्त कांसे या पीतल के पात्र श्रेष्ठ हैं या फिर पलाश, कमल (पुखे) केले आदि के पत्र प्रयोग किये जा सकते है। मिट्टी के पात्र जल पात्र के रूप में प्रयोग किये जाय। आजकल प्लास्टिक चीन मिट्टी काँच या अन्य धातुओं के पात्र प्रयोग में लाये जा रहे हैं उनके परिणाम हमारे सामने है।


भोजन को बनाने और गृहण करने के सन्दर्भ में गीता में 3/13 कहा गया है यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग आपने शरीर पोषण के लिये ही अन्न पकाते हैं वे तो पाप को ही खाते हैं।


आज के लिखे पढ़े लोग वायु के द्वारा संक्रमित रोगों से बचाव के लिए अत्यधिक सजग हैं। तरह-तरह के मास्क पहनते हैं पर भोजन को अपवित्र और दूषित करने के प्रति सजग नहीं हैं। कही भी में एक ही प्लेट में भोजन करना यह एक जूठे हाथों से भोजन परोस लेना बुरा नहीं मानते। कब हम जूठन और पात्रों की पवित्रता के प्रति सजग होंगें?


भोजन का मन के साथ सम्बन्ध बहुत गहरा है। महाभारत शन्ति पर्व 217/98 में कहा गया है-आहार नियम में नास्य पाप्मा शाम्यति राजसः अर्थात् आहार में संयम रखने से पाप का श्रय होता है कुछ लोग बाजारों में चाट आदि के चाटने में बड़ा ही गर्व अनुभव करते हैं। वे स्थान का निरीक्षण नहीं करते है नीचे गन्दी जाली बड़ रही है। भोजन को ग्रहण करने में भोजन का निर्माणक कौन है स्थान कहाँ है व समय क्या अवश्य ही अवलोकन करना चाहिए तथा भूख लगने पर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए महाभारत उद्योगपर्व 34/50 कहता है-सुत् स्वादतां जपति। कुछ लोगों की आदत यह होती है कि वे हर वक्त कुछ न कुछ खाते रहते हैं-भुख अजा सम चलाता ही रहता है महाभारत शान्तिपर्व 693/10 कहता है-भोजन दिन में एक बार तथा रात्रि को एक बार करना चाहिए। गृहस्थ को दो बार भोजन करना चाहिए।